Tuesday, July 9, 2013

चाह बस् इतना कि
















चाह नही मुझे कि..
मिलूँ तुमसे बागों व बहारों में

चाह नही मुझे कि..
मिलूँ तुमसे नदी के किनारों पे

चाह नही मुझे कि..
तुम छेड़ो बंसी की तान और
झूमती आऊँ मै

चाह नही कि..
तुम बैठो कदम्ब की डाल और
नाच के रिझाऊँ मै

चाह नही कि..
थामूं तुम्हारा हाथ और
निहारूँ तुम्हारी आँखों में


चाह बस इतनी कि..
हे ! नाथ
छू लूँ तुम्हारे
पद पंकज और
हाथ हो तुम्हारा मेरे सिर पर ||

मीना पाठक

6 comments:

  1. मीना जी कृष्ण को रीझाती काफी अच्छी रचना है। बधाई आपको ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार अन्नपूर्णा जी

      Delete
  2. सहज, सुंदर, भक्ति रस और श्रद्धा को वर्णित करती रचना।

    ReplyDelete

शापित

                           माँ का घर , यानी कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ बचपन के दोस्तों के साथ मिलन...