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Tuesday, July 9, 2013

चाह बस् इतना कि
















चाह नही मुझे कि..
मिलूँ तुमसे बागों व बहारों में

चाह नही मुझे कि..
मिलूँ तुमसे नदी के किनारों पे

चाह नही मुझे कि..
तुम छेड़ो बंसी की तान और
झूमती आऊँ मै

चाह नही कि..
तुम बैठो कदम्ब की डाल और
नाच के रिझाऊँ मै

चाह नही कि..
थामूं तुम्हारा हाथ और
निहारूँ तुम्हारी आँखों में


चाह बस इतनी कि..
हे ! नाथ
छू लूँ तुम्हारे
पद पंकज और
हाथ हो तुम्हारा मेरे सिर पर ||

मीना पाठक

Friday, March 8, 2013

तुमसे मिलने का असर है




















कभी चाह थी बहुत दिल मे 
कि छू लूँ मैं भी बढ़ा के हाथ 
मिट्टी,हवा,पानी इन सब को 
पीछे छोड़ शून्य को 
जिंदगी को चाह थी भरपूर जीने की
थी ललक, कुछ भी कर गुजरने की 
जिंदगी एक किताब खूबसूरत थी 
जिसे पढ़ने की प्यार से तमन्ना थी 

फिर घेरा ऐसा बादलों ने निराशा के 
खुद से बातें करती,हंसती,रोती,बावली 
सी, ना चाह रही जीने की ना ललक 
कुछ करने की ...........................
बिखरी हुई सी ज़िंदगी,पन्ना-दर-पन्ना 
पलती गई यूँ ही, ज़िंदगी रेत की तरह 
हाथ से फिसलती गई

जाग उठी है अब फिर से वही पुरानी 
चाह जीने की,ललक कुछ करने की 
जिंदगी की खूबसूरत किताब को 
तमन्ना प्यार से पढ़ने की 
मिट्टी,हवा,पानी सब को पीछे छोड़ हाथ 
बढ़ा कर शून्य को छूने की , शायद ये 
तुमसे मिलने का असर है मुझ पर ||

चित्र -गूगल 

Monday, March 4, 2013

छाँव
















वसू हूँ मैं
मेरे ही अन्दर
से तो फूटे हैं
श्रृष्टि के अंकुर 
आँचल की 
ममता दे सींचा 
अपने आप में
जकड़ कर रक्खा 
ताकि वक्त 
की तेज आंधियाँ
उन्हें अपने साथ 
उड़ा ना ले जाएं
बढ़ते हुए 
निहारती रही 
पल-पल 
अब वो नन्हें 
से अंकुर 
विशाल वृक्ष 
बन चुके हैं 
और मैं बैठी हूँ 
उस वृक्ष की 
शीतल छाँव में 
आनन्दित 
मगन
अपने आप में ||

गाँव अब गाँव नही रहे











गाँव अब गाँव नही रहे
नहीं सुनाई देता  अब

चाची और बुआ के गीत
जो वो भोर में जांत पर
गेंहू पीसते हुए गातीं थी
 
नहीं सुनाई देता अब

माँ के  पायलों की
छम-छम जो ढेंका पर
धान कूटते हुए माँ के पैरों
से आती थी

 
नहीं
 सुनाई  देते  अब
बैलों के घंटी की आवाज
जो खेत जोतते समय
उनके गले से आती थी

किसी के घर जाने पर

अब नहीं मिलता वो
गुड़,भूजा और चिवड़ा
नहीं है अब वो आम,

अमरुद और जामुन के
पेड़ जहाँ हम बचपन

में ओल्हा-पाती खेलते थे

नहीं है अब वो मड़इयां

और खपरैल, मिट्टी के
चूल्हे पर बटुली में खदकता
अदहन भी नहीं अब 


नहीं दिखतीं अब बैल-गाड़ी पर

गीत गाती हुई मेला जाती औरतें
नहीं होता अब गन्ने की पेराई,
गेंहू की दंवाई और धान की ओसाई
नहीं दीखते अब डोली और कंहार

ना जाने कहाँ खो गया ये सब
मशीनों की होड़ और आधुनिकता
की दौड़ में गाँव अब गाँव नहीं रहे ||

चित्र-गूगल  

Monday, February 25, 2013

प्रश्न एक स्त्री का













हृदय में पीड़ा
के साथ एक
प्रश्न भी  है
कौन हूँ   ?
किस लिए हूँ ?
किस के लिए
हूँ मैं ............?  


 मीना पाठक

Sunday, February 24, 2013

लक्ष्मी मेरे घर की



















आरती की थाली 
लिए हाथों में 
जाने कब से 
निहार रही हूँ बाट ....
आएगी वह 
जब सिमटी लाल-जोड़े में ,
मेहँदी रचे हाथों से 
दरवाज़े पर लगा कर 
हाथों के थाप ,
ढरकाती हुई अन्न का कलश
आलता लगे पैरों से
निशान बनाती करेगी 
प्रवेश मेरी बहू अन्नपूर्णा, 
मेरे घर में 
बन के मेरे घर की लक्ष्मी ||

मैं पापा की लाडली



















मै अपने पापा 
की  लाडली 
उनकी ऊँगली 
पकड़   कर 
मचलती इठलाती 
थोड़ी ही दूर चली थी 
कि 
काल चक्र ने 
एक झटके से 
उनके हाथ से 
मेरी ऊँगली छुड़ा दी
अब मैं अकेली 
इस निर्जन 
बियावान जंगल 
में 
इधर - उधर 
भटकती   हूँ
एक सुरक्षा भरी 
छाँव  के  लिए 
जहाँ  बैठ  कर
मैं अपने आप को 
सुरक्षित महसूस 
करूँ 
जैसे अपने पापा 
की ऊँगली पकड़ कर 
अपने आप को 
सुरक्षित महसूस 
करती थी 
मैं 
अपने पापा की 
लाडली ।
  • मीना

Tuesday, February 5, 2013

ज़िंदगी




















जिन्दगी !!!
तुम इतनी बेजार क्यों ?
परेशान क्यों ?
 मैंने जब भी
 चाह  की
 तुझे गले से लगाने की
 झटक के दामन
 छुड़ा के  बइयां
 बेबस कर गयी मुझे
 और मेरी खुशियाँ
 बाट जोहती रही
  तुम्हारा
 जिन्दगी
 तुम कब से इतनी
निष्ठुर हो गयी  ||

चित्र - गूगल


मीना पाठक


Saturday, February 2, 2013

इन्तजार


















बहुत याद आता है मुझे
तुम्हारा मेरे
पीछे-पीछे घूमना
जरा भी मुझे
उदास देख कर
तुम्हारा परेशान
हो जाना ........
बहुत याद आता है मुझे
कुछ खो जाने पर
झट से ढूँढ
कर मुझे देना
और कहना
परेशां होना तुम्हारी
आदत है
सामान कही
भी रख के भूल
जाती हो'.......

फिर वो शुभ
घड़ी आयी
पगडण्डी से
होते हुए
डाकिये
के हाथ एक
चिट्ठी आयी
बेसब्री से इन्तजार था
जिसका हम को
फिर,
वो दिन भी आ
गया, जब तुम्हे
मुझसे दूर जाना था
तुम आगे और मैं
तुम्हारे पीछे - पीछे
जा रही थी उसी
पगडंडी पर
तुम्हे कुछ दूर छोड़ने,
मैंने अपने आँसुओं
के समन्दर को
बांध रखा था
शायद तुमने भी
पर, ज्यादा देर
नही रोक पाए हम दोनो
तुम पलट कर
लिपट गये मुझसे
कितनी देर रोते
रहे थे हम दोनो
न जाने तुम्हे
याद है कि नही पर,
बहुत याद आता है मुझे
और रुलाता है
वो तुम्हारा रोज मुझे
फोन करना और,
मेरी आवाज
सुनते ही रो पड़ना
बहुत याद आता है
फिर,
ना जाने क्या हुआ
किसकी नजर लगी
हमारे प्यार को
कि धीरे - धीरे तुम
बदल गये
मैंने कब तुम्हारी
खुशियाँ नही चाही
तुम्हारे लिए वो
सब किया जो तुमने चाहा
कहां मेरे प्यार में
कमी रह गयी जो
तुमने किसी और के
लिए मेरा प्यार
भुला दिया ....
आज भी तुम्हारे इंतज़ार में
रोज आती हूँ उस पगडंडी पर
तुम्हारी राह देखती हूँ और,
उदास हो कर वापस चली जाती हूँ
कल फिर वापस आने के लिए
इस आशा के साथ कि,
कभी तो तुम वापस आओगे
मेरे पास उसी पगडंडी पर
जहाँ तुम मुझे अकेला छोड़ गये थे ||

( चित्र - गूगल )


मीना पाठक







शापित

                           माँ का घर , यानी कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ बचपन के दोस्तों के साथ मिलन...