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Monday, June 17, 2013

साधन मात्र



जब भी राकेश देर रात तक काम करते हैं रानी कितना ख्याल रखती है | जब तक राकेश काम करते हैं रानी दोनों बच्चों को मुंह पर उंगुली रख कर चुप कराती रहती है | बीच-बीच में उनको चाय बना के दे आती है | राकेश भी उसे बुला के सामने बैठा लेते हैं –“तुम सामने रहती हो तो काम जल्दी हो जाता हैये बोल कर कितना लाड दिखाते हैं | जब तक वो काम करते रहते है रानी भी जागती रहती है फिर सुबह जल्दी उठ कर बच्चों को तैयार कर के स्कूल भेज देती है | बच्चे अगर जोर से बोलते हैं तो उन्हें चुप करा देती है पापा रात देर से सोये है शोर मत करो बच्चे भी चुप हो जाते हैं | राकेश ९ बजे सो कर उठते हैं तब तक उनका नाश्ता और लंच दोनों तैयार कर के दे देती है और वो ऑफिस चले जाते हैं |
 हर सम्भव ख्याल रखती है, उनके जूते,कपड़े,उनकी सेविंग किट यहां तक कि उनकी फाईलें भी वही संभालती है | पर जब भी वो कुछ पढ़ने या लिखने बैठती है तो राकेश को जाने क्या हो जाता है और उनका व्यवहार बहुत रूढ़ हो जाता है |
आज भी वो सब काम खत्म कर के अपनी कविता लिख रही थी तो राकेश ने कितनी जोर से डांट दिया
–“जब देखो ये फालतू का काम ले के बैठ जाती हो मेरे लिए तो समय ही नही तुम्हारे पास, लाइट बंद करो सोऊँगा नही तो कल ऑफिस में सिर दर्द होगा तुम्हे क्या घर में पड़ी सोती रहोगी”|
रानी अपनी डायरी और कलम समेटती हुई दुखी मन से उठती है और आल्मारी में रख देती है | एक यही काम तो वो खुद की खुशी के लिए करती है बाकी सारा दिन तो सब के लिए जीती है और बस इतनी सी बात राकेश को बर्दास्त नही होती |
रानी लाइट बंद कर के लेट जाती है और अपने आँसू पोंछते हुए सोचने लगती है कि उसने तो कभी नही कहा
मुझे माइग्रेन है मैं देर रात तक तुम्हारे साथ जागती हूँ तो अगले दिन मुझे माइग्रेन का अटैक पड़ जाता है | मै किस तरह दवा खा के घर का और बच्चों का काम करती हूँ तुम्हे क्या पता तुम तो शाम को आते हो और मेरा सूजा हुआ चेहरा देखते हो तो यही कहते हो कि - " अभी सो कर उठी हो क्या जो तुम्हारा चेहरा इतना सूजा हुआ है" अब मैं तुम्हे क्या बताऊँ कि मेरा चेहरा सोने से नही माइग्रेन की वजह से सूजा हुआ है | अंघेरे में रानी अपने आँसू बार बार पोंछ लेती है इतने में राकेश का भरी भरकम हाथ उसके उपर आ
जाता है और वो उस हाथ के नीचे अपने आप को दबा हुआ महसूस करती है | मैं क्या हूँ राकेश के लिए सिर्फ उनकी जरूरतों को पूरा करने का एक साधन मात्र बस ……..और कुछ नही |
राकेश जान ना जाएं इस लिए रानी धीरे से अपनी आँखों को पोंछ के सुखा देती है |



मीना पाठक 

Sunday, February 24, 2013

सीख

















आज सुबह उठ कर घर का काम निपटाया बेटे को स्कूल भेज दिया | पतिदेव की तबियत कुछ ठीक नही तो वो अभी सो ही रहे थे |मैंने अपनी चाय ली और किचेन के दरवाजे पर ही बैठ गई कारण ये था कि आज आँगन में बहुत दिनों बाद कुछ गौरैया आयी थीं वो चहकते हुए इधर उधर फुदक रही थीं और मैं नही चाहती थी कि वो मेरी वजह से उड़ जाएँ | तो मैं वहीँ बैठ के उनको देखते हुएचाय पीने लगी | थोड़ी देर बाद गोरैया तो उड़ गईं पर मैं वहीं बैठी रही चुपचाप | ना जाने कैसे अचानक से पापा का ख्याल आ गया|
उनका ख्याल आते ही दो बूँद आँसू आँखों से निकल कर मेरे गालों पर लुढक आये और मैं अपने पापा के साथ अपने बचपन में चली गयी |सभी बच्चों मे कुछ ना कुछ बुरी आदत होती है मुझ मे भी थी | जब मैं कक्षा ६ में पढ़ती थी तो मुझे पैसे चुराने की बुरी आदत हो गई थी | मैं रोज तैयार हो के बैग पीठ पर लादती और पापा की पैंट की जेब में हाथ डाल कर जो भी फुटकर पैसे होते २५ , ५० या
१ रुपया निकल लेती और स्कूल चली जाती | उस समय पापा नहा रहे होते थे और मम्मी पूजा कर रही होती थीं इस लिए मेरा काम आसानी से हो जाता था | स्कूल में मैं उन पैसों से चूरन की मीठी गोलियाँ , कैथा , खट्टा - मीठा चूरन और इमली खरीदती और मजे से खाती |
कुछ दिनों तक तो ये सब बड़े आरम से चलता रहा | मजे की बात ये थी कि मुझे जरा भी एहसास नही था कि मैं कोई गलत काम कर रही हूँ ना ही मुझे ये लगता कि पापा कभी ये सब जान पायेंगें | कुछ दिनों तक ये सब बड़े आराम से चलता रहा |एक दिन ऐसे ही मैं तैयार हो कर स्कूल के लिए निकलने लगी | मम्मी पूजा कर रहीं थीं उनके ठीक पीछे दिवाल पर खूँटी थी और पापा की पैंट उसी पर टंगी थी रोज की तरह | पापा नहा रहे थे | मैंने धीरे से पापा की जेब में हाथ डाला कुछ सिक्के मेरी मुट्ठी में आ गये मैं हाथ बाहर निकलने ही वाली थी कि पापा बाथरूम से निकल के बहार आ गये थे |
मैं जहाँ खड़ी थी वहाँ से बाथरूम का दरवाजा साफ दिखाई देता था | तो अब मैं और पापा एक दूसरे के आमने सामने थे और हक्के - बक्के देख रहे थे एक दूसरे को |
मेरा एक हाथ पापा के पैंट की जेब में ही था | मेरी इतनी हिम्मत नही थी की मैं अपना हाथ जल्दी से बहार निकाल लूँ |फिर क्या ... पापा सारा माजरा समझ कर बोले -- अच्छा तो तुम ही हो जो मेरी जेब से पैसे गायब करती हो , रुको अभी बताता हूँ, इतनी गन्दी आदत तुम्हारे अन्दर कहा से आई , मैं भी कहूँ कि मेरी जेब के फुटकर पैसे कहाँ गायब हो जाते हैं , रोज परेशान होता हूँ की कहाँ खर्च दिए मैंने, (शायद पापा को बहुत जोर की गुस्सा आई थी मुझ पर ) पापा बड़बड़ाते जा रहे थे और कुछ इधर -उधर ढूंड भी रहे थे | मैं वही जड़ हो के खड़ी थी | अन्दर ही अन्दर थर - थर काँप रही थी | मम्मी भी सब समझ चुकी थीं |
बार-बार सिर घुमा के मुझे कड़ी नजरों से देख रही थीं | पापा को एक पतली सी छड़ी मिल गयी थी | मेरे पास आ कर उन्होंने मेरे उपर छड़ी उठाई और पूछा "फिर करोगी ऐसा".....
मैंने डर के मारे आँखे बंद कर ली और बोली -- "नही" और आँखे बंद किये किये ही छड़ी पड़ने का इन्तजार करने लगी |
थोड़ी देर बाद मैंने अपनी आँखे खोली तो देखा कि पापा उदास बैठे हुए हैं और छड़ी ज़मीन पर पड़ी है | अब मुझे लगा कि मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई है | पर उस समय पापा से कुछ बोलने की हिम्मत नही जुटा पा रही थी | चुप-चाप वही खड़ी रही , थोड़ी देर बाद पापा ही बोले ......-- आज के बाद मैं तुमसे बात नही करूँगा तुम ऐसा करोगी मुझे उम्मीद नही थी ..मुझे लगा कि पापा मुझे दो चार छड़ी मार देते तो ज्यादा अच्छा था | मैं उन से बोले बिना कैसे रह पाऊँगी | उस दिन स्कूल नही गई मैं |
किसी तरह दो दिन बीत गया | मुझे कुछ भी अच्छा नही लग रहा था | पापा भी गुमसुम थे |मैंने पापा को दुःख पहुँचाया था | अपनी गलती का एहसास हो गया था मुझे | ऐसा लग रहा था कि पापा मुझे जी भर के डांट लेते,दो चार छड़ी भी लगा देते पर यूँ चुप ना रहते मुझसे |
ये सजा मेरे लिए असहनीय हो रही थी | इसी तरह तीसरा दिन भी बीत गया | पापा की चुप्पी मुझसे सहन नही हो रही थी |चौथे दिन मुझसे रहा नही गया | मैं डरते-डरते पापा के पास गई और बोली ..सॉरी ....
पापा ने मेरी तरफ देखा ,सॉरी पापा ... मैंने अपने दोनों कान पकड़ लिए और रोते हुए बोली ..
आगे से ऐसा कभी नही होगा पापा ....
पापा बोले -- प्रोमिस
मैंने कान पकड़े पकड़े ही सिर हिला कर हामी भर दी |
मेरे सिर हिलाते ही पापा ने मुझे अपने सीने से लगा लिया और प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मुझे समझाने लगे .... "आगे से कभी ऐसी गलती मत करना,चोरी करना बहुत बुरी बात होती है,तुम्हे पैसे की जरुरत हो तो मुझसे मांगो" और भी ना जाने क्या क्या ...
पापा ने मुझे माफ़ कर दिया था | मेरे उपर से टनों बोझ उतर गया था | उनके सीने से लग के जिस सुकून की अनुभूति मुझे हुई थी वो शब्दों में बयान नही कर सकती |पापा की दी हुई सजा का असर मुझ पर ऐसा पड़ा कि आज तक मैंने वो गलती दोबारा नही दोहराई यहाँ तक कि पतिदेव की जेब में भी कभी हाथ नही डालती | उनकी जेब में गलती से कुछ नोट या सिक्के रह भी गये तो वो कपड़ो के साथ ही धुल जाते हैं | पता नही ये उनकी चुप्पी का असर है या मेरे उपर उठाई गई छड़ी का डर जो कभी पड़ी नही थी मुझे |
पापा का वो स्पर्श मुझे बहुत याद आ रहा है आज | आँसू रुकने का नाम नही ले रहे हैं | बहुत कोशिश के बाद भी अपनी हिचकियाँ नही रोक पायी और मेरे मुंह से निकल पड़ा "मिस्स यू पापा ....... अब भी मुझमे बहुत सी कमियाँ हैं" | काश कि एक बार फिर...................
रीना .........पतिदेव जाग गये थे और आवाज दे रहे थे मुझे | मैंने आँसू पोंछा फिर मुंह धोया | थोड़ा अपने को संयत किया तब तक
दोबारा आवाज आ गयी -- रीना...... अब पापा का साथ छूट चुका था | मैं पतिदेव के कमरे की तरफ बढ़ गई |

चित्र ..गूगल

Thursday, January 17, 2013

शरारत



रात के ९ बजे हैं | डोर बेल बजता है | मैं बेटे को आवाज दे कर बोली - देखो पापा जी आ गये, गेट खोलो जा कर | बेटे ने दौड़ कर गेट खोल दिया | पतिदेव अन्दर आते हैं और गाड़ी खड़ी कर के सीधे रसोई की तरफ बढ़ते हैं | सब्जी का थैला रखते हुए मेरी तरफ देख कर घबरा जाते हैं |
अरे !! शालू क्या हो गया तुम्हे ? क्यों रो रही हो ? जल्दी से आ कर मेरे पास बैठ जाते हैं और मेरे आँसू पोछने लगते हैं | क्या हो गया शालू किसी ने कुछ कहा क्या ? मैंने तो तुम्हे कुछ कहा नही फिर क्या हुआ तुम्हे ? क्यों रो रही हो ?
बेटे को आवाज दे के पूछते हैं - मम्मी को किसी ने कुछ कहा क्या ? बेटा भी ना में सिर हिला देता है और मेरी तरफ देखने लगता है |
ये बोले - बोलती क्यों नही,क्या हुआ ? तब मैं पलकें झपकाते हुए बोली - क्या करूँ , जब भी मैं ये काम करती हूँ मुझे रोना आ जाता है | मैं अपने आँसू नही रोक पाती | 
क्यों करती हो वो काम जिससे तुम्हे रोना आता है | मेरे आँसू पोंछते हुए ये बोले |
मैं नही करुँगी तो कौन करेगा | घर के सारे काम मुझे ही करने होते हैं | कोई नौकर थोड़े ही लगवा रखा है आप ने | मैं थोड़ा गुस्से मे बोली |
अच्छा बाबा मैं ही कर दूँगा वो काम | आज के बाद तुम्हारी आँखों से एक भी आँसू नही गिरने चाहिए समझी | चलो अब मुस्कुरा दो | ये मुस्कुराते हुए बोले |
मैंने भी मुस्कुराते हुए अपना दोनो हाथ उनके ओर बढ़ा दिया और बोली - लो जी शुरू हो जाओ फिर देर किस बात की | मेरे एक हाथ में प्याज ओर दूसरे में चाकू देख कर ये सारा माजरा समझ गये |
पतिदेव मुस्कुराये और ये बोलते हुए रसोई से बाहर निकल गये कि "ये सब तुम्हारा काम है" | (प्याज काटने की वजह से मेरी आँखों से पानी गिर रहा था जिसे मेरे पतिदेव आँसू समझ बैठे थे ) तुम ही करो |
मैंने अपनी आँखें पोंछी और फिर जुट गई प्याज काटने में पर पतिदेव से ये शरारत कर के मैं बहुत खुश थी |



मीना पाठक 

Monday, December 31, 2012

रानी दी की व्यथा -मीना पाठक

            रानी दी          



बहुत दिनों बाद मै अपने मायके (गाँव) जा रही थी | बहुत खुश थी मै कि मै अपनी रानी दी से मिलूँगी (रानी दी मेरे ताऊ जी की बड़ी बेटी ) | मै और रानी दी कितना लड़ती थी आपस में पर एक दूसरे के बिना रह भी नहीं पाती थीं | पूरे दस साल बाद हम मिल रहें थे |

अगले दिन सुबह हम ट्रेन से शिवान स्टेशन पहुँच गये | भैया जीप ले कर आये थे स्टेशन,हमें लेने के लिए भैया ने इनके हाथ से अटैची ली और हम तीनो स्टेशन से बहार आ कर जीप में बैठ गये | भैया ने जीप आगे बढ़ा दी |
मै अपने बचपन की यादों में खोती चली गई | कैसे मै और रानी दी खेतों पर हरवाह (हल चलाने वाला ) के लिए खाना ले कर जाया करती थीं और ललचाई हुई नजरों से उसे खाते हुए देखा करतीं थी | लौटते हुए चना,बथुआ और मटर का साग खेतों से खोंट कर लाया करतीं थीं हम दोनों | गेंहू की फसल पर जब द्वार पर गेंहू के बड़े बड़े ढेर लगे होते थे तब हम दोनों बाबा और दादी की नजरों से बच के गेंहूँ चुरा कर गाँव के बनिए की दूकान पर बेच आया करतीं थीं और उस पैसे से लख्खठे (बेसन के मोटे सेव गुड़ में पगे हुए) और गुड़ की पट्टी खरीद के खाया करती थी |

ऐसा नही था कि हम आपस में लड़ती नही थीं |दिन में एक बार लड़ाई जरुर होती थी हम दोनों में | उसके बाद घर में जा कर दोनों डांट खाती थीं |

८ वीं के बाद मै पापा के साथ शहर आ गई थी और दी की १२ वीं के बाद शादी हो गई थी | मै किसी कारन शादी में नही जा पाई थी |

एक झटका लगा और मै अपने बचपन की यादों से बहार आ गई |जीप घर के सामने रुक गई थी |मैंने देखा दोगहा का बड़ा सा दरवाजा पकड़ कर घर की सभी औरतें अंदर से ही मुझे आते हुए देख रहीं थीं | ये बाहर ही ताऊ जी के पास बैठ गये थे | ज्यों ही मैंने चौकठ लाँघ कर अन्दर पैर रखा सभी ने मुझे बड़े प्यार से गले लगाया अंत में मैं और रानी दी गले लग के रो पड़ी |एक लंबे अंतराल के बाद हम दोनों मिले थे ,बहुत खुश थी मैं |
दूसरे दिन मै और रानी दी गाँव घूमने निकल पड़ीं | गाँव का छोटा सा स्कूल अब बड़ा हो गया था |गाँव की कच्ची सड़क पर खडंजा बिछ गया था | तालाब के पास एक बिना छत की कोठारी में पीपल के नीचे शंकर जी रहते थे,अब वो एक सुन्दर मंदिर में विराजमान थे | हम दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और आगे बगीचें की ओर बढ़ गये | वहाँ पर हम दोनों एक पेड़ के नीचे आराम से बैठ गईं |

दी ने मेरे से मेरे ससुराल के बारे में सब पूछा मैं बताती चली गई,अब मेरी बारी थी | मैंने पूछा दी आप के घर में सब कैसे हैं, दी बोली सब बहुत अच्छे हैं,मै बोली - और जीजू,वो कैसे हैं ? रानी दी के चेहरे का रंग उतर गया,वो बोलीं - वो भी अच्छे हैं | मेरे दिल में कुछ खटक गया | जरुर कोई बात है,मैंने सोचा और दी से बोली नही कुछ और बात है बताओ ना मुझे हम दोनों एकदूसरे से से कुछ छुपाते थे क्या ? बस .. दी रोने लगीं | उन्होंने जो भी बताया उसकी तो मै कल्पना भी नही कर सकती थी |

रानी दी की शादी एक धनी और प्रतिष्ठित परिवार में हुई थी |ढेर सारी ज़मीन-जायदाद देख कर ही शादी हुई थी दी की |जीजा जी एकलौती संतान थे और क्या चाहिए था बाबूजी (ताऊ जी) को |

दी ने बताया - ये बहुत जिद्दी और गुसैल हैं |जिंदगी अपनी शर्तों पर जीते हैं,मै मरुँ या जीऊँ इनसे कोई मतलब नही |छोटी-मोटी बात पर हाथ उठाना वो अपनी मर्दानगी समझते हैं |उनके हर आदेश का पालन होना चाहिए,बिल्कुल वैसे ही जैसे स्विच दबाते ही पंखा चलने लगता है |पर वो तो एक निर्जीव मशीन है | मैं एक इंसान हूँ मेरी भी कुछ भावनाएँ हैं,कुछ इच्छाएँ हैं पर इन सब से उन्हें कोई मतलब नही |उनके हुक्म की गुलाम हूँ मैं  |उनकी निगाह में मैं मात्र एक "चीज" हूँ जिसे जब चाहें और जैसे चाहें वो इस्तेमाल करें उनकी मर्जी | बदले में मुझे कपड़े गहने की कमी नही है | मैं रोज मरती हूँ क्या करूँ अब तो आदत सी हो गई इसी तरह से जीने की | दी ने एक लम्बी साँस ली और अपने आसूँ आँचल से पोछने लगीं |

मैं बोली - दी कैसे सहती हो ये सब बड़ी मम्मी से बताया क्यों नही | आवाज क्यों नही उठाती उन के खिलाफ | दी बोलीं - शुरू-शुरू में तो ये सोच के चुप रही की कुछ दिनों बाद सब ठीक हो जायेगा | ससुराल की बात मायके में क्या बताऊँ,भाभियाँ हंसेगीं | माँ को बता के उन्हें क्यों दुख दूँ और किस के बल पे आवाज उठाऊं,बाबूजी होते तो बात और थी | शरम की वजह से भी नहीं बता पायी | मैने भी तो कोई उच्च शिक्षा नही ली जो इनसे अलग हो के कही नौकरी कर सकूँ | अब बहुत देर हो गई इन बातों के लिए |कोई कदम उठाती हूँ तो अपनी बेटियों को ले कर कहा जाऊँगी,वो पढ़ रही हैं | अब तो बस उन्ही दोनों को देख कर जी रही हूँ | मेरा दिल बहुत दुखी हुआ ये सब सुन कर पर मैं कर भी क्या सकती थी |

शाम होने को थी | हम दोनों उठ कर उदास मन से घर की तरफ चल दी | उस रात हम दोनों कुछ खा ना सकी | भाभियों ने मजाक किया "दोनों दीदीयों का पेट तो एक दूसरे से मिल के ही भर गया है,खाने की जगह कहा है उस में" | हमने एक खोखली हँसी के साथ थाली वापस कर दी | रात में हम एक साथ ही सोये |

मै बोंली - दीदी जीजा जी ऐसे होंगें,मैंने तो सोच भी नहीं था | औरत को अपने पैर की जूती समझते हैं, वो भी आज के ज़माने में |
दी बोलीं - अब मेरी ही किस्मत खराब है तो मै क्या करूँ और दी सिसकने लगी | मैंने दी को अपनी बाहों में भर के सीने से लगा लिया | मैं भी अपने आँसू रोक नही पायी | ना जाने कब हम दोनों की आँख लग गई |अगले दिन ही मुझे वापस बनारस लौटना था |

जल्दी चलो ट्रेन का समय हो रहा है | भैया की आवाज आयी | मैं सब से गले मिल रही थी | सब की आँखें डबडबाई थी,मेरी भी | सब से आखीर में मैं अपनी रानी दी के गले लगी,हम दोनों लिपट कर खूब जी भर के रोईं हमें बड़ी मम्मी ने अलग किया और मुझे पकड़ कर जीप में बैठा दिया,ये पहले ही बैठ चुके थे |

मैंने रोते-रोते ही हाथ हिला के टा टा किया | मैंने देखा सभी अपनी आँखे पोंछ रहें थे | जीप आगे बढ़ गई और घर मेरी आँखों से ओझल हो गया | एक बार फिर मै जोर से सिसक पड़ी तभी भैया की आवाज सुनाई दी "अब चुप हो जा ढेर मति रोवा नाही त कपरा बत्थे लागी" (ज्यादा ना रो नही तो सिर दर्द होगा) |


( मैं तो अपनी रानी दी के लिए कुछ भी नहीं कर पायी | रानी दी ने भी परिस्थितियों से समझौता कर लिया था पर उनकी इस हालत का जिम्मेदार कौन है | आज भी गांवों में शिक्षा पूरी होने से पहले ही लड़कियों की शादी पैसे वाला घर देख के कर दी जाती है भले ही लड़का शिक्षित हो या ना हो | उनका जवाब होता है कि बेटी को खाने पहनने की कमी नही होगी | एक दूसरा पहलू भी है कि हम जन्म से ही लड़की को परायाधन मान लेते हैं और ये बात लड़की के मन में बैठ जाती है फिर ससुराल में उसके साथ कितना भी अत्याचार हो वो मायके जाने की हिम्मत नही जुटा पाती )

मीना पाठक    



शापित

                           माँ का घर , यानी कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ बचपन के दोस्तों के साथ मिलन...