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Monday, March 4, 2013

गाँव अब गाँव नही रहे











गाँव अब गाँव नही रहे
नहीं सुनाई देता  अब

चाची और बुआ के गीत
जो वो भोर में जांत पर
गेंहू पीसते हुए गातीं थी
 
नहीं सुनाई देता अब

माँ के  पायलों की
छम-छम जो ढेंका पर
धान कूटते हुए माँ के पैरों
से आती थी

 
नहीं
 सुनाई  देते  अब
बैलों के घंटी की आवाज
जो खेत जोतते समय
उनके गले से आती थी

किसी के घर जाने पर

अब नहीं मिलता वो
गुड़,भूजा और चिवड़ा
नहीं है अब वो आम,

अमरुद और जामुन के
पेड़ जहाँ हम बचपन

में ओल्हा-पाती खेलते थे

नहीं है अब वो मड़इयां

और खपरैल, मिट्टी के
चूल्हे पर बटुली में खदकता
अदहन भी नहीं अब 


नहीं दिखतीं अब बैल-गाड़ी पर

गीत गाती हुई मेला जाती औरतें
नहीं होता अब गन्ने की पेराई,
गेंहू की दंवाई और धान की ओसाई
नहीं दीखते अब डोली और कंहार

ना जाने कहाँ खो गया ये सब
मशीनों की होड़ और आधुनिकता
की दौड़ में गाँव अब गाँव नहीं रहे ||

चित्र-गूगल  

शापित

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