Friday, June 6, 2014

नदी


वो नदी जो गिरि
कन्दराओं से निकल
पत्थरों के बीच से
बनाती राह

कितनो की मैल धोते
कितने शव आँचल मे लपेटे
अन्दर कोलाहल समेटे
अपने पथ पर,

कोई पत्थर मार
सीना चिर देता 
कोई भारी चप्पुओं से
छाती पर करता प्रहार
लगातार,

सब सहती हुई
राह दिखाती राही को
तृप्त करती तृषा सब की
अग्रसर रहती अनवरत
तब तक, जब तक
खो न दे 
आस्तित्व |

Wednesday, May 21, 2014

धरती की गुहार अम्बर से


प्यासी धरती आस लगाये देख रही अम्बर को |
दहक रही हूँ सूर्य ताप से शीतल कर दो मुझको ||

पात-पात सब सूख गये हैं, सूख गया है सब जलकल
मेरी गोदी जो खेल रहे थे नदियाँ जलाशय, पेड़ पल्लव
पशु पक्षी सब भूखे प्यासे हो गये हैं जर्जर
भटक रहे दर-दर वो, दूँ मै दोष बताओ किसको
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को |

इक की गलती भुगत रहे हैं, बाकी सब बे-कल बे-हाल
इक-इक कर सब वृक्ष काट कर बना लिया महल अपना
छेद-छेद कर मेरा सीना बहा रहे हैं निर्मल जल
आहत हो कर इस पीड़ा से देख रही हूँ तुम को
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को |

सुन कर मेरी विनती अब तो, नेह अपना छलकाओ तुम
गोद में मेरी बिलख रहे जो उनकी प्यास बुझाओ तुम
संतति कई होते इक माँ के पर माँ तो इक होती है
एक करे गलती तो क्या देती है सजा सबको ?
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को
|

जो निरीह,आश्रित हैं जो, रहते हैं मुझ पर निर्भर
मेरा आँचल हरा भरा हो तब ही भरता उनका उदर
तुम तो हो प्रियतम मेरे, तकती रहती हूँ हर पल
अब जिद्द छोड़ो इक की खातिर दण्ड न दो सबको
प्यासे धरती आस लगाए देख रही अम्बर को
|

झड़ी लगा कर वर्षा की सिंचित कर दो मेरा दामन
प्रेम की बूंदों से छू कर हर्षित कर दो मेरा तनमन
चहके पंक्षी, मचले नदियाँ, ओढूं फिर से धानी चुनर 
बीत गए हैं बरस कई किये हुए आलिंगन तुमको
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को ||


सोचा न था

सोचा न था मंजर यूँ बदल जायेंगे
आसमां से ज़मी पर उतर आएँगे,
चलते थे जो फूलों भरी राह पर
पाँव वो लहु-लूहान हो जाएँगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जायेंगे |

महकता था दामन जो इत्र की सुगंध से
दुर्गन्ध में पसीने की बदल जाएँगे
रहते थे जो रौशनी की चकाचौंध में
यूँ अंधेरों में मुंह अपना छुपाएंगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जायेंगे  |

आँचल में छुप-छुप किलकारियां भरते थे जो
अब सीना तान दिखाएँगे
कहा करते थे आने ना देंगे आँसू कभी
वही आँखों में समंदर भर जाएँगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जाएँगे |

दौड़ कर लग जाते थे कभी जो सीने से
मुंह फेर कर अब चले जाएँगे,
भरोसे की चादर ओढ़, चैन से सोते थे बेखबर हम
चादर वो खींच कर ले जाएँगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जाएँगे ||
 

Thursday, May 1, 2014

हे स्त्री !!

 उठो हे स्त्री !
पोंछ लो अपने अश्रु 
कमजोर नही तुम 
जननी हो श्रृष्टि की 
प्रकृति और दुर्गा भी 
काली बन हुंकार भरो,
नाश करो!
उन महिसासुरों का 
गर्भ में मिटाते हैं  
जो आस्तित्व तुम्हारा,
संहार करो उनका जो 
करते हैं दामन तुम्हारा 
तार-तार,
करो प्रहार उन पर 
झोंक देते हैं जो
तुम्हें जिन्दा ही 
दहेज की ज्वाला में,
उठो जागो !
जो अब भी ना जागी 
तो मिटा दी जाओगी और 
सदैव के लिए इतिहास 
बन कर रह जाओगी ||

शापित

                           माँ का घर , यानी कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ बचपन के दोस्तों के साथ मिलन...